सौरा कला : भारतीय जनजातीय अभिव्यक्ति का अद्भुत उदाहरण
कला हमेशा से अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रही हैं और अनेक संस्कृति और रीति-रिवाज की झलक इनमें देखने को मिलती हैं। जैसा कि भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए विश्व विख्यात है, यहां विभिन्न क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट आदिवासी लोक कलाएं हैं। ये लोक कलाएं परंपरागत स्वरूप में क्षेत्र-विशेष या समुदाय-विशेष द्वारा बनाया गया कलाकर्म हैं। लोक कलाओं का विभिन्न स्वरूप उनके क्षेत्रीय आधार या विशेष समुदायों के आधार पर निर्मित है। लोक कला अपने पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करती रहती हैं। इस कला में मूल रूप से प्रतीकों एवं आकृतियों के सरलतम रूप के आधार पर अंकन किया जाता हैं। विभिन्न लोक कलाओं की तरह सौरा कला का भी अपना एक इतिहास रहा हैं।
उद्भव व विकास
सौरा भारत के राज्य उड़ीसा में निवास करने वाली जनजाति हैं। यह जाति अत्यंत प्राचीन है। इसी सौरा जनजाति के माध्यम से इस कला का सृजन किया जाता है जिसे भारत में सौरा कला के नाम से जाना जाता हैं। सौरा जनजाति के इतिहास का उल्लेख हिंदू महाकाव्य रामायण और महाभारत एवं कृष्ण पुराण में मिलता है। रामायण में एक प्रसंग में राम की भक्त माता शबरी और कृष्ण को तीर से घायल करने वाले जारा इसी जनजाति से संबंधित थे। सौरा कला आदिवासियों के धार्मिक समारोहों का एक अभिन्न अंग है। प्रायः यह कला उड़ीसा के रायगढ़, गंजम, गजपति और कोरापुट जिलों में पाई जाती हैं। सौरा कला का अध्ययन सर्वप्रथम मानव विज्ञानी वेरिएन एल्विन ने किया था।
विषय वस्तु
सौरा कला में विशेष रूप से जनजाति के उत्सवों, त्योहारों, अनुष्ठानों, लोक कथाओं, कर्मकांड तथा दैनिक जीवन से संबंधित चित्रों को अंकित किया जाता हैं। इस कला के विषय वस्तु में जन्म उत्सव, विवाह, कृषि कार्य, सूर्य देव, चंद्र देव तथा पशु-पक्षी आदि प्रमुख हैं। इन चित्रों को “इडिटल” भी कहा जाता है।
वर्ण संयोजन
सौरा लोक कला में विविध प्रकार के प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। जैसे —
1. लाल रंग के लिए गेरु व सिंदूर
2. पीले रंग के लिए पीली मिट्टी
3. भूरे रंग के लिए गाय का गोबर
4. सफेद रंग के लिए सफेद पत्थर / सीप का पाउडर / चावल का घोल
इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की फूलों, पत्तियों के रस से भी रंग तैयार किए जाते हैं।
चित्र बनाने की विधि
सौरा चित्रकला आमतौर पर किसी सांस्कृतिक या धार्मिक अवसर पर, या फिर नए घर के निर्माण के समय बनाई जाती है। चूंकि उनके घर मिट्टी के बने होते थे, इसलिए पहले दीवारों को साफ कर पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। दीवार पर मिट्टी का लेप करने के बाद जब वह सूख जाता है, तो उस पर गोबर और गेरू का दूसरा लेप लगाया जाता है। इसके बाद पृष्ठभूमि चित्रण के लिए तैयार हो जाती है।
चित्रांकन में मुख्यतः ज्यामितीय आकारों का प्रयोग किया जाता है — जैसे वृत्त, त्रिभुज, वर्ग आदि। प्रत्येक आकृति का एक विशेष अर्थ होता है:
- वृत्त — निरंतरता और एकता का प्रतीक.
- त्रिभुज — तीन लोक (पृथ्वी, आकाश, पाताल) का प्रतीक.
- वर्ग — स्थिरता और पृथ्वी का प्रतीक.
मानव आकृतियों को लंबे अंगों और गतिशील मुद्राओं में दर्शाया जाता है। पहले किनारे बनाए जाते हैं, फिर बांस की बनी तूलिका से आकृतियों का अंकन होता है। अंत में रंग भरकर चित्र को जीवंत बनाया जाता है।
वर्ली और सौरा कला में अंतर
कई बार वर्ली और सौरा कला को एक जैसा समझ लिया जाता है, परंतु ऐसा नहीं है। वर्ली कला आम लोगों द्वारा बनाई जाती है, जबकि सौरा कला मुख्य पुजारी द्वारा बनाई जाती है। यह धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टि से विशिष्ट महत्व रखती है।
निष्कर्ष
सौरा कला रंगों, कहानियों और प्रकृति के प्रति विशेष लगाव से भरी एक रहस्यमय और जीवंत कला है। यह जनजाति की कलात्मक प्रतिभा और सांस्कृतिक जीवंतता का प्रमाण है। प्रत्येक चित्र में एक कहानी छिपी होती है — चाहे वह दैनिक जीवन, धार्मिक प्रथाओं या प्रकृति की सुंदरता से जुड़ी हो। यह सौरा जनजाति के लिए अपनी संस्कृति को जीवित रखने और अगली पीढ़ियों तक पहुँचाने का माध्यम है।
संदर्भ सूची
1. हेमलता अग्रवाल, आकांक्षा कुमारी — "भारतीय लोक कला एवं आदिवासी कलाओं के विविध रूप", पृष्ठ 53, संस्करण 2024.
2. बी. सी. पटेल — "सौरा और उनकी मनोरम चित्रकारी", उड़ीसा रिव्यू, 19 मार्च 2013.
3. हेमलता अग्रवाल, आकांक्षा कुमारी — "भारतीय लोक कला एवं आदिवासी कलाओं के विविध रूप", पृष्ठ 54, संस्करण 2024